आनंदकंद अनंतविभूषित योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज का जीवनवृत्त

करुणामूर्तिं सद्गुरुदेव योगिराज चन्द्रमोहन जी महाराज कलिकाल दग्भ, तापत्रय पीडित जनों के हृदय सन्ताप को शान्त करने याले चन्दनोपमम् शीतलता प्रदान करने वाले ऐसे महापुरुष हैं जो योगी भक्तों के लिये युगों-युगों तक वन्दनीय व स्मरणीय रहेंगे। महापुरुष सामान्य गाँव या प्रान्त में पैदा होते हैं और उनके जन्म के समय कोई सोच नहीं सकता था कि यह महापुरुष तिमिरान्धस्य को करने वाले पूर्ण चन्द्रमा बनकर आये हैं। विजयदशमी की शुभ पट्टी में प्रगट हुए यह बालयोगी कालान्तर में एक महान सिद्ध योगी के रूप में अनगिनत योग पिपासुओं के सद्गुरू बनकर जगत का कल्याण करेगें और परम कल्याण का मार्ग दिखायेंगे।

सद्गुरुदेव योगिराज चन्द्रमोहन जी महाराज का जन्म सन् 1909 को विजयदशमी के पावन पर्व पर हरियाणा प्रान्त में पानीपत के पास अलूपुर गाँव में हुआ था। उस समय कौन सोन सकता था कि यह नवजात शिशु असंख्य जनों के मुरझाये हृदय कमल को विकसित करने के लिये सूर्य बनकर आया है। इनके पूज्य पिताजी का शुभ नाम पंडित देवीराम जी था। इनके दादाश्री का नाम पंडित हरिनाम जी था जो कौशिक वंश के थे। पंडित देवीराम जी का विवाह पानीपत जिले के समालखा मण्डी के निकट निराणा गाँव के प्रतिष्ठित परिवार की सुकन्या नाता भरती देवी से हुआ। इन्हीं के पवित्र कोख से जगपावन एक पुत्र का जन्म हुआ जिनका नाम पिताश्री ने चन्द्रदत्त रखा। परमपूज्य पंडित देवीराम जी स्वभाव से ईश्वर भक्त वैदिक परम्परा के पोषक तथा परम दयालु स्वभाव के थे। उस समय भारत में ब्रिटिश शासन था। समाज में अशिक्षा, रुढिवादिता तथा पाखण्ड का बोलबाला था। उस समय स्वामी दयानंद जी के विचारों का समान पर बहुत प्रभाव पड़ रहा था। पूज्य पंडित देवी राम जी में भी आर्य समाज के विचार कूट-कूट कर भरे हुये थे। पंडितजी को संस्कृत भाषा के साथ आयुर्वेद का भी विपुल ज्ञान था। सद्गुरुदेव जी ने अपने जन्म लेने से पूर्व ही अपने पिताजी को स्वप्न दिया और कहा- मैं आपके पुत्ररत्न के रुप में आ रहा हूँ। मेरी मातानी को आप गर्भावस्था में ही अमुक-अमुक दिव्य औषधियों का सेवन कराना ताकि मेरा शरीर गर्भावस्था में ही पुष्ट हो जाये। स्वप्न की बातों को ध्यान में रखते हुये पिताश्री ने माता भरती देवी के गर्भावस्या के दिनों में उन्हें ब्राह्मी, शादान पाकादि दिव्य रसायनों का सेवन कराया। जिसके परिणाम स्वरूप सद्गुरुदेव जी जन्म से ही अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट, बलिष्ठ व तेजस्वी थे।

सद्गुरुदेव योगिराज श्री मंद्रमोहन जी महाराज को उत्कृष्ट शिक्षा देने के लिये पिताश्री ने किसी अच्छे विद्यालय में प्रवेश दिलाने का मन बना लिया और इन्हें लाहौर में डीएवी कॉलेज के अन्तर्गत श्रीमद्दयानन्द ब्रास महाविद्यालय में प्रवेश दिलाया। उस विद्यालय के प्राचार्य एवं संचालक भारत के विख्यात विद्वान पद्म विभूषण आचार्य श्री विश्ववन्धु जी बहुत ही उच्च विचारों के व्यक्ति ये और तपस्या व सदाचार को साक्षात मूर्ति थे। उस विद्यालय मे 3-4 वर्ष तक गुरुदेव का अभ्ययन चला इनके पिताश्री चाहते थे कि ये पढ़-लिख कर विद्वान बनें और आर्य समाज का प्रचार करें। किन्तु इन्हें कुछ और ही करना था इसलिये प्राक्तन संस्कार का वेग लीन हो गया। भगवान् श्री कृष्णनन्द जी का प्रेन तथा योगमय जीवन जीना तथा विश्व कल्याण की भावना प्रबल होती जा रही थी। उनका मन विद्यालय में नही लग रहा था। एक दिन वे अपने प्राचार्य जी से कहने लगे-गुरुश्रेष्ठ! में शायद आर्य न रह पाऊँ । गुरुनी पूछने लगे तो क्या तू किसी और मर्म को ग्रहण कर लेगा? ये कहने लगे नहीं, आचार्य जी में वैदिक धर्म में ही रहूँगा किन्तु मुझे भगवान् कृष्ण अच्छे लगते हैं। आचार्य जी ने कहा- श्री कृष्णनी तो हमें भी अच्छे लगते हैं। तुम विद्यालय छोड़कर मत जाओ । किन्तु संस्कार के प्रबल वेग के कारण इन्होंने विद्यालय छोड़ दिया और श्री वृन्दावन आ गये। श्री वृन्दावन से इनके चाचा श्री शिवनारायण जी इन्हें ढूँढकर वापिस ले आये। तत्पश्चात इन्हें अमृतसर में संस्कृत विद्यालय में प्रवेश कराया गया। अभ्ययन के श्रीच-बीच में वृन्दावन जाते रहे, अध्ययन काल में ही अनूतसर के निकट एक गाँव के शिवालय में पोरतम अनुष्ठान किया। परिणाम स्वरुप अन्य अनेक अनुभूतियों के साथ-साथ स्वप्न में एक दिन जन्म-जन्मान्तर के प्रियतम अपने गुरुदेव आनन्दकन्द महाप्रभु श्री रामलालजी महाराज के दर्शन प्राप्त हुये। उनका विप्र पेश था जो भोती-कुर्ता और पगड़ी बांधे हुये थे और एक कुँए पर खड़े, कुँए से पानी निकाल-निकाल कर पिपासुओं को नल पिला रहे थे। ऐसा करने के कुछ देर बाद उन्होंने अपना कमण्डल इनके हास में थमाते हुये कहा श्लो बेटा! अब तुम इन्हें पानी पिलाओंर इनका स्वप्न टूटा। सोचने लगे ये कौन महापुरुष हैं? क्या यह परम तेजोमय पुरुष मेरे जन्म-जन्म के पिता व गुरु अपने परम इष्टदेव ही हैं। ये सदा ही सोचते रहते ये महापुरुष कैसे और कहाँ मिलेगें ? उस गाँव में (गुरु का नडियाला) अनुष्ठान करने के बाद श्रीगुरुदेव फिर अमृतसर लौटे आये और पुनः अध्ययन में लग गये। एक-दो दिन पश्चात् वे बाजार में अपने एक मित्र की दुकान पर गये। उनकी पुस्तकों की दुकान थी। उनका नाम दुर्गादास भंडारी था। इन्हें देखते ही वे कहने लगे-अरे! महाशय जी, आपके दर्शन काफी दिनों के बाद हो रहे हैं। आप कहाँ चले गये थे? इन्होंने उत्तर दिया- हाँ मई! मैं एक गाँव में अनुष्ठान करने चला गया था। मेरी प्रबल इच्छा पनी हुई है कि कोई योगी गुरु मिल जाये तो मैं तीव्रतम योग सामना करूँ। श्री दुर्गादास जी ने कहा- योगी तो तुम्हें हरिद्वार, ऋषिकेश की तरफ मिलेंगे। वैसे यहाँ अमृतसर में भी एक योगीराज हैं और वह इस समय गृहस्थ वेष में हैं। उनके एक शिष्य हमारे पास आया करते हैं, हो सकता है अभी वे यहाँ आयें। वे दोनों ऐसी चर्चा कर ही रहे थे कि स्वामी मुल्खराज जी महाराज इनकी दुकान पर आ विराने उनका परिचय देते हुये दुर्गादास जी ने कहा- आप स्वामी मुल्खराज हैं और योगिराज जी के प्रिय शिष्यों में से एक हैं। गुरुदेव जी ने उनसे योगिराज जी के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर उन्होंने अपनी दुकान का पता पता दिया और यहाँ आने को कहा। दूसरे दिन शान के समय गुरुदेव जी, योगिराज मुलखराज जी की दुकान पर पहुँच गये। यहाँ पर स्वामीजी ने बहुत ही प्यार से श्री महाप्रभु जी का परिचय देना प्रारम्भ कर दिया उन्होंने कहा- भाई ! श्री महाप्रभु जी अपने संस्कारी बच्चों को आकर्षित कर लिया करते हैं। इसके पश्चात उन्होंने अन्दर कमरे में विराजमान श्री महाप्रभु जी के पगड़ी वाले स्वरुप को दिखाते हुये कहा – यही सिद्धों के सिद्ध महासिद्ध परम कृपा निकेतन मेरे गुरुदेव महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज हैं। इस समय वे ऋषिकेश में हैं। यहाँ पर कभी-कभी आया करते हैं। श्री प्रभुजी के श्री विग्रह को देखकर श्री सद्गुरुदेव जी को लगा कि ये तो मेरे जन्म-जन्मान्तर के पिता हैं। इनके रूप को मैंने पहले कहीं देखा है। प्यान से चिन्तन करने पर इन्हें अनुष्ठान काल में हुये शिव मन्दिर में आए स्वप्न को याद आई। इन्होंने ही मुझे प्यासे लोगों को पानी पिलाने की आज्ञा दी थी। श्री महाप्रभु जी का परिचय पाकर ऋषिकेश आश्रम का पूरा पता लेकर सद्गुरुदेव जी ऋषिकेश योग साधन आश्रम पहुँच गये। सद्गुरुदेव जी ने जिस समय आश्रम में प्रवेश करके दरबार में प्रवेश किया तो श्री प्रभुजी दरबार के बाँई तरफ के कक्ष में बाहर की ओर ऐसे देख रहे थे मानो किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों। श्री सद्गुरुदेव जी को देखते हुये श्री महाप्रभु जी ने कहा- अच्छा तुम आ गये। श्री सद्गुरुदेव ने उत्तर दिया- हाँ गुरुजी ! मैं आ गया हूँ। श्री सद्गुरुदेव जी ने योग विद्या सीखने की इच्छा व्यक्त की। श्री महाप्रभु जी ने कहा- अभी तुम पढ़ रहे हो पढ़ाई करो । गुरुदेव ने कहा- प्रभुजी ! मुझे तो आप योग मार्ग में लगाओ जिससे भगवान् श्री कृष्ण के चटपट दर्शन हो जाये। श्री महाप्रभु जी ने इनकी उत्कृष्ट इच्छा को देखते हुये योग दीक्षा दे दी। दीक्षा देने के पश्चात श्री महाप्रभु जी ने पूछा- अब तुम्हारा कहाँ जाने का विचार है? श्री सद्गुरुदेव जी ने कहा – प्रभुजी ! मैं वृन्दावन जाना चाहता हूँ। श्री महाप्रभु जी ने सहर्ष स्वीकृति देते हुये कहा- बेटा, वृन्दावन जाकर तुम प्रात: 5 बजे से 7 बजे तक ध्यानाभ्यास में नियमित बैठना । श्री सद्गुरुदेव जी ने उनकी इस आज्ञा का पूरा-पूरा पालन किया। श्री महाप्रभु जी एवं भगवान श्री कृष्णचंद्र की कृपा से इन्हें श्री वृन्दावन में ही योग की सारी सम्पत्ति मिल गई और ऋद्धि-सिद्धि सहित योग की सारी भूमिकायें तय कर ली और स्वरुप स्थिति को पा गये। एक बार सवाँई आश्रम में योग दर्शन की विभूतिपाद पंतजलि देव के सूत्रों की किसी से चर्चा के दौरान श्री सद्गुरुदेव भगवान ने स्वयं अपने श्री मुख से कहा था- विभूतिपाद में वर्णित ऐसी कोई विभूति शेष नहीं है जिनका श्री महाप्रभु जी की कृपा से साक्षात्कार न किया हो । श्री सद्गुरुदेव भगवान श्री चंद्रमोहन जी महाराज, श्री महाप्रभु जी की अपने साथ हुई एक लीला का वर्णन करते हुए बताते थे कि ऋषिकेश के निवास काल में मैंने धोखे से प्रभु जी की धोती पहन ली थी । यह देखकर आदरणीया श्री माता जी ने मुझसे कहा, बेटा यह उनकी धोती तुमने क्यों पहन ली, यह तुम्हारी नहीं है। श्री महाप्रभु जी सामने बैठे हुए थे और जोर से हंस पड़े और अपने शरीर से कमीज उतार करके मुझे पहना दिया और कहने लगे, -धोती ही नहीं यह कमीज भी पहन ले। श्री महाप्रभु जी की आज्ञा पाकर मैंने वह कमीज भी पहन ली। उस समय प्रभु जी ने अपने मुखारविंद से कहा कि जा, अब जो कुछ करना चाहे वह कर, सब कामों में सफलता मिलेगी । तब सद्गुरुदेव श्री चंद्रमोहन जी महाराज ने श्री महाप्रभु जी से प्रार्थना की, कि प्रभु जी, मैं क्या करूंगा? मैं तो जानता ही नहीं। इस पर श्री महाप्रभु जी ने कहा, तू क्या करेगा, करने वाले करेंगे किन्तु काम सब होते रहेंगे। श्री महाप्रभु जी के ये वचन सद्गुरुदेव भगवान बराबर याद करते रहते थे। श्री सद्गुरुदेव भगवान बताते थे कि श्री महाप्रभु जी के ऐसे कह देने के बाद असंख्य लोगों का भला हुआ, करने वाले करते रहे और मैं प्रभु जी की असीम अनुकंपा से निमित्त बना रहा। कुछ समय ऋषिकेश निवास करने के बाद प्रभु जी अल्मोड़ा चले गये और अल्मोड़ा से मुझे लोगों को दीक्षा देने की आज्ञा प्रदान की । यद्यपि मैं स्वयं किसी को दीक्षा देना नहीं चाहता था किन्तु बार-बार श्री प्रभु जी के आज्ञा प्रदान करने पर मैंने आज्ञा स्वीकार कर ली। उसके बाद प्रभु जी ने मुझे योग प्रचारार्थ लाहौर भेज दिया। लाहौर में, मैं लगभग 01 वर्ष प्रभु जी के गवालमण्डी, कृष्णा गली नं. 02 वाले आश्रम में रहा। वहां साधना करने वाले साधकों की काफी भीड़ बनी रहती थी और लोगों पर बहुत उपकार हुआ। तत्पश्चात श्री महाप्रभु जी की आज्ञा से सद्गुरुदेव भगवान सवाँई, ऋषिकेश और दिल्ली आश्रम की व्यवस्था को जीवन पर्यंत देखते रहें और योग की क्रियाओं द्वारा दीन-दुखियों के कष्टों को दूर करते रहे। सन 1986 में नई दिल्ली में आयोजित विश्व योग सम्मेलन में श्री सद्गुरुदेव भगवान को योग शिरोमणि की उपाधि से सम्मानित किया गया था। सन 1989 के प्रयागराज कुम्भ में सद्गुरुदेव भगवान श्री देवराहा बाबा से भेंट हेतु उनके कैम्प पर गए तो श्री देवराहा बाबा ने श्री सद्गुरुदेव जी का भरपूर आदर सत्कार किया। श्री देवराहा बाबा ने श्री सद्गुरुदेव भगवान को श्री महाप्रभु जी की कृपा से हुई खेचरी सिद्धि के बारे में बताया और आपके शिष्यों से कहा कि तुम लोग इसके कुर्ते कि ठोक को मत छोड़ देना बड़ा छलिया है बार-बार मोर मुकुट लगाकर नहीं आएगा। श्री सद्गुरुदेव भगवान बड़े सरल भाव व रूप में रहते थे और अपने शिष्यों को समझाते थे कि योगी को लोक व्यवहार में साधारण रूप में रहना चाहिए उसका भाव पूरा समुद्र पीकर भी होंठ प्यासे दिखें जैसा होना चाहिए । श्री सद्गुरुदेव भगवान सर्व-समर्थ और परासत्ता के स्वामी हैं तथा वर्तमान में भी हिमालय पर सशरीर विराजमान है।

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