योग–योगेश्वर महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज का संक्षिप्त जीवनवृत्त
योग-योगेश्वर महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज योगियों के ईश हैं एवं गुरूओं के भी गुरू, सिद्धों के भी सिद्ध मार्केण्डेय प्रभृति सिद्धों की भाँति कल्पान्तजीवी महासिद्ध हैं। कल्प के प्रारम्भ से ही योगमय शरीर से हिमालय में समाधिस्थ रहने वाले ये महापुरूष सिद्धाश्रम के अधिपति हैं। सृष्टि के पालन एवं संहार की सामर्थ्य रखने वाले ऐसे योगी पृथ्वी लोक के प्रलय पर्यन्त यहाँ विराजते हैं। यहाँ प्रलय हो जाने पर सूक्ष्म ऊर्ध्व लोकों में चले जाते हैं। तीनो लोको में स्वच्छन्द विचरण करने वाले ये सिद्ध किसी भी लोक में आ जा सकते हैं तथा वहाँ रह सकते हैं। प्रकृति को अपने आधीन रखने वाले समस्त प्राणियों के मन बुद्धि को अपनी इच्छानुसार चलाने वाले व प्रेरणा देने वाले, सर्व-ज्ञातृत्व आदि पराशक्तियों के स्वामी, योगियों के वरेण्य, योगियों को सकल सिद्धियाँ प्रदान करने वाले परम योगेश्वर हैं।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे अपनी इस घोषणा की परिपूर्ति के लिए निर्माणकाय विधि से युगपद् अनेक स्थानों पर अनेक शरीरों में रहकर कार्य करने वाले महापुरूष हैं। दुःख व द्वन्द्वों से तिलमिलाते प्राणियों के त्रयताप का हरण करने के लिये वे आविर्भूत होते रहते हैं। अजन्मा, निर्गुण तथा विभु होने पर भी आप संस्कारी भक्तों व बच्चों के उद्धार के लिये योग मार्ग का प्रकाश देने के लिये आते हैं। ष्गुरूः साक्षात् परं ब्रह्मष् के आप मूर्त रूप हैं। उनका शरीर धारण करना प्राकृत मानवीय विधान के अन्तर्गत नहीं हैं।
वराहमिहिर द्वारा विरचित सूर्य सिद्धांत में ऐसे महायोगियों के विषय में आया है–
अचिन्त्य शक्तिमान योगी नाना रुपाणि धारयेत।
संहरेत पुनस्तानि सूर्यो रश्मिगणानिव।।
अर्थात अचिन्त्यशक्ति सम्पन्न योगी एक साथ नानारूपों को धारण करते हैं तथा कार्य के अवसान पर सूर्य जैसे अपनी रश्मिगणों को संहत कर लेते हैं वैसे ही ये अपने शरीरो को समेट लेते हैं।
पुराणों में उपाख्यान आता है कि महर्षि कपिल ने निर्माणकाय धारण कर आसुरि नामक अपने शिष्य को सांख्ययोग का उपदेश दिया था। सद्गुरुदेव श्री चंद्रमोहन जी महाराज अपने श्रीमुख से बतलाया करते थे कि महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज ने पृथ्वी मण्डल पर आकर सोलह शरीरों का एक साथ निर्माण किया और विभिन्न स्थानों पर योग प्रचार किया हैं। एक ही समय में वे नासिक में थे, उन्हीं दिनों में ऋषिकेश में थे। जिन दिनों में वे श्री सिद्ध गुफा सवांई में थे, उन्हीं दिनों आवागढ़ में भी विराजमान रहे।
लोक व्यवहार में आपका आविर्भाव विक्रमी संवत 1945 (सन् 1888 ई0) चौत्र शुक्ल नवमी वृहस्पतिवार इष्ट छः घड़ी छप्पन पल वृष लग्न में पंडित गण्डाराम जी के यहाँ पंजाब प्रान्त के परम पावन गुरुओं की नगरी अमृतसर में हुआ। जोशी वंश सारस्वत ब्राह्मणों में सुविख्यात जाति है। जिसका गोत्र मौदगल्य है, प्रवर मुख्य आंगिरस ऋषि हैं, शाखा माध्यन्दिनी और सूत्र कात्यायनी है। जब आपके पूज्य पिताजी ने जन्म कुण्डली बनायी तो अत्यंत प्रसन्नता के साथ मुस्कराते हुए कह उठे! यह बालक योगियों में श्रेष्ठ और संसार में योग का प्रकाश करने वाला होगा। आप में जन्मजात सिद्धियों का वास था। आपके पिता पुण्यश्लोक पंडित गंडारामजी ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान राजज्योतिषी थे। पिताश्री ने बालक के ग्रह-नक्षत्र को देखकर रामनवमी के दिन जन्म होने के कारण इस अलौकिक बालक का परम पावन नाम रामलाल रखा। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों को देने वाले आपका नाम चतुर्दिक् प्रख्यात होता रहेगा।
योग-योगेश्वर महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज के जन्म के विषय में महर्षि काकभुशुंडि जी ने अपने ग्रंथ काकभुशुंडि औत काक-नाड़ी नामक संहिता में श्री महाप्रभु जी के जन्म के विषय में पूर्व में ही भविष्यवाणी की थी। महर्षि काकभुशुंडि जी परमज्ञानी और रामभक्त हैं और उन्होंने रामायण 11 बार व महाभारत 16 बार देखा है। उपरोक्त ग्रंथ मद्रास नगर (वर्तमान में चेन्नई) के राय पेट स्थित कौमार नाड़ी ज्योतिषालय में उपलब्ध है।
योग-योगेश्वर महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज के पिताजी ने इनके ग्रह-नक्षत्र को देखकर जान लिया था कि ये बालक घर में नहीं रहेगा और ऐसा ही हुआ श्री महाप्रभु जी 15 वर्ष की अल्पायु में ही घर से निकल पड़े। श्री महाप्रभु जी ने कुरूक्षेत्र, हरिद्वार तथा वाराणसी में संस्कृत और ज्योतिष का अध्ययन किया। श्री महाप्रभु जी अल्पायु में ही लोगों की कुण्डली देखकर फलादेश बता दिया करते थे और सब घटना वैसे ही घटती थी जैसे आपके श्री-मुख से निकलती थी। आपके भक्त आपको साक्षात शिव मानते हैं। 20-22 वर्ष की अवस्था में ही आप मथुरा, वृन्दावन आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा पर चले गये। घूमते-घूमते आप बरहन होते हुये सवाँई गाँव में पहुँच गये। वहाँ पर आपने अनेक दिव्य लीलायें की। आपके स्मरण मात्र से ही भक्तों के सब कष्ट दूर हो जाया करते थे। कुछ दिन सवाँई रहने के पश्चात आप ने नेपाल धाम जाने की इच्छा प्रकट की। भक्त लोग आपके नेपाल जाने के निर्णय से अधीर होने लगे और निर्विध्नता पूर्वक ध्यान समाधि के उद्देश्य से गुफा का निर्माण करने का संकल्प किया, भक्तों ने पहले अपनी इच्छा से गुफा बनाई किन्तु दो बार गुफा उसी समय गिर गई, उन्होंने श्री महाप्रभुजी से निवेदन किया कि आप ही बतायें हम किस जगह पर गुफा बनायें। श्री महाप्रभुजी ने सहर्ष स्थान बता दिया जहाँ एक सुन्दर गुफा बनाई गई जो आज भी वैसे ही विद्यमान है। यहाँ पर आपने भक्तों पर अनेक कृपायें कीं व भक्तों एवं ग्रामवासियों ने आपकी बहुत सी चमत्कारिक बातें देखीं। इस गुफा में आप 2-3 वर्ष तक रहे। तत्पश्चात आकाश मार्ग से नेपाल हिमालय को चले गये। मार्ग में आपने बहुतों का उपकार किया। जिसमें सद्गुरुदेव महायोगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज, देवराहा बाबा, देवी रामरती, ब्र0 गोपालानन्द जी महाराज, योगिराज मुल्खराज जी महाराज, योगी श्री नरसिंहमूर्ति जी महाराज, महात्मा ऋषिदेवी जी, परम साध्वी माता द्रौपदी देवी, योगी पारसनाथ जी आदि हैं। श्री महाप्रभुजी ने देवरहा बाबा को खेचरी क्रिया सिद्ध कराई थी। जिसे देवरहा बाबा स्वयं स्वीकारा करते थे। सन् 1989 में कुंभ के पावन अवसर पर आनंदकंद सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी के समक्ष उन्होंने इस तथ्य को स्वीकारा था। श्री महाप्रभुजी को हिमालय में उन्हें अपने गुरुदेव भगवान सदाशिव का साक्षात्कार हुआ और आप वहाँ समाधिस्थ रहे। कुछ काल के अनन्तर महाप्रभुजी को पृथ्वी मंडल पर आने की आज्ञा हुई ताकि असंख्य संस्कारी बच्चे योग मार्ग के दिव्य प्रकाश को पाकर अपने को कृतार्थ कर सकें। इसी आज्ञा के पालन हेतु श्री महाप्रभु जी निर्माणकाय सिद्धि से नवीन शरीर धारण करके हिमालय से वापिस आये। हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पर इनके परिवारी जनों ने इन्हें पहचान लिया और इन्हें घर बुला आये, इनके मिलने से परिवारजनों को बड़ा आनन्द हुआ। अब श्री महाप्रभु जी वनखण्डी रूप को छोड़कर विप्र वेश में रहने लगे, धोती कुर्ता व सिर पर पगड़ी धारण करने लगे। उनके इस रूप को देखकर कोई अनुमान नहीं लगा सकता था कि इस रुप में परमात्मसत्ता सुशोभित हो रही है। जो अन्तर्दृष्टि सम्पन्न योगिराज होते थे वह उनके वास्तविक स्वरुप व शक्ति को पहचान जाते थे। ऋषिकेश में पुरानी झाड़ियों में रहने वाले अवधूत केशवानन्द ने योगिराज गुरुदेव चन्द्रमोहन जी से कहा था-ये लोग हिमालय को कभी छोड़ते ही नहीं हैं। ये तो सिद्धों के महासिद्ध हैं हमें तो बड़ा आश्चर्य है कि ये यहाँ कैसे हैं? अवधूत ने यह वचन इनके आत्मतेज को जानकर ही कहा था अन्यथा इनके अति सामान्य गृहस्थाश्रम वाला वेश देखकर कोई नहीं कह सकता था कि सर्वसमर्थ सिद्ध पुरुष हैं। नेपाल हिमालय से आने के बाद श्री महाप्रभुजी ने तीन कार्य किये जो समाज के पूर्ण स्वास्थ्य लाभ तथा आत्मोत्थान के लिये थे। सर्वप्रथम उन्होंने रोगोंकी निवृति के लिये ष्जीवन तत्व साधनष् का आविष्कार कर समाज में प्रचार किया। जीवन तत्व की क्रियायें बहुत ही वैज्ञानिक क्रियायें है, दुर्बल से दुर्बल व्यक्ति भी नियमित इन साधनों को करे तो निश्चित रूप से पूर्ण स्वास्थ्य लाभ पाता है। विकृत आहार-विहार से दूषित क्षीणवीर्य वाले व अल्पप्राण वाले मनुष्यों के लिये ये साधन रामबाण के समान अचूक साधन हैं। ये साधन श्कायाकल्पश् साधन भी कहलाते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य श्री महाप्रभुजी ने यह किया कि योग की क्रियाओं को जन-सामान्य तक पहुँचाने के लिए योग आश्रमों की स्थापना की। इन क्रियाओं का शिक्षण प्रशिक्षण इन आश्रमों में मिलने लगा। आनन्दकन्द योगिराज श्री गुरुदेव चन्द्रमोहन जी महाराज अपने मुखारविन्द से बतलाया करते थे कि एकबार वे ऋषिकेश शीशम झाँड़ियों में गंगा किनारे सूत्र नेति कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते किसी संन्यासी ने देख लिया। वे तुरंत इनके पास पहुँच गये और इनसे कहने लगे – आपको यह क्रिया किसने सिखाई है? यह जन सामान्य के सामने करने की क्रियाऐ नहीं हैं, यह तो गुप्त क्रियायें है तब आनन्दकन्द योगिराज श्री गुरुदेव चन्द्रमोहन जी महाराज ने अपने आश्रम का परिचय दिया और कहा-हमारे गुरुदेव ने यह क्रियायें अब गुप्त नहीं रहने दी हैं।
ब्रह्मचारी गोपालानन्द जी महाराज जब श्री महाप्रभु जी के चरणों में नहीं आये थे उससे पहले वे नजला-जुकाम से बहुत परेशान थे। स्वयं आयुर्वेद के मर्मज्ञ वैद्यराज होने के बावजूद वे अपने रोग का उपचार नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने आयुर्वेद ग्रन्थों में तथा योग के ग्रन्थों में नेति क्रिया का वर्णन पढ़ा था वे इसे सीखना चाहते थे किन्तु ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इन्हें यह क्रिया सिखा देते। अन्त में परम पिता की करुणा-कृपा से श्री महाप्रभु जी के दर्शन हुये और उनके चरणों में नेति आदि सभी षट्कर्म क्रियाऐं सीख ली और श्री महाप्रभु जी की आज्ञा से हजारों पीड़ित व्यक्तियों को उन्होंने यह साधन निःशुल्क करायें। उन दिनों भारत में इस प्रकार की क्रियाएँ सिखाने वाली संस्थाये नगण्य थी। उस समय न तो योग के बहिरंग क्रियाओं का इतना प्रचार था और न ही ध्यान, समाधि अन्तरंग योग का प्रचार-प्रसार था। श्री महाप्रभुजी ने अनेक योग साधना के केन्द्र खोलकर लोगों को शारीरिक स्वास्थ्य व मानसिक शान्ति प्रदान की है। तीसरा अनुपम कार्य श्री महाप्रभुजी ने किया वह था तीव्र शक्तिपात द्वारा कुण्डलिनी जागरण और समाधि लाभ। उनकी कृपा से घर-गृहस्थी में रहने वाले लोग योग के उन अलभ्य भूमिकाओं को प्राप्त करने लगे जिनके लिए महात्मा लोग घर-संसार त्याग कर कन्दराओं में साधना करते हैं। श्री महाप्रभुजी ने अपने बच्चों को सहज ही अविनाशी योग विज्ञान प्रदान किया और उन्होंने विश्व में योग का अविनाशी पथ दिखाने वाले गुरुओं का निर्माण किया। उनकी सिद्ध योग परम्परा में अनेक सिद्ध दुनिया के लोगों को तारने वाले बन गये। ष्यस्य प्रसादात् पतिता सुपावना भवन्ति संसार सुतारणा शिवाष् जिनकी कृपा से पतित से पतित भी पावन होकर संसार को तारने वाले हो जाते हैं। ऐसे परम कृपालु श्री महाप्रभुजी की जिस प्रकार कृपा दृष्टि हो जायें तो वह धन्य हो जाता है। वस्तुतः योग सिद्ध योग परम्परा से ही चलने वाली विद्या है। श्रीमद्भगवदगीता जी में भगवान् श्री कृष्णचन्द्र जी ने सिद्ध योग परम्परा का वर्णन करते हुये अपने मुखारविन्द से कहा है कि इस अविनाशी योग का सर्वप्रथम मैने विवस्वान (सूर्य) को उपदेश किया था। विवस्वान (सूर्य) ने मनु को तथा मनु से इक्ष्वाकु को इसका ज्ञान प्राप्त हुआ। इस प्रकार से प्राचीन काल में यह परम्परा चलती रही किन्तु बाद में परम्परा विच्छिन्न हुई और योग का ज्ञान संसार में नष्टप्राय हो गया और ध्यानयोग की बात केवल शास्त्रों के अध्ययन तक ही रह गयी थी। कलिकाल के इस युग में महाप्रभु श्री रामलाल जी महाराज ने पुनः सिद्धयोग की परम्परा को स्थापित किया और श्री महाप्रभु जी ने इसे अपने साधकों को जीवन में आत्मसात् कराया। योग को जीवन में धारण करने पर ही मनुष्य के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो सकता है। जीव को पवित्र बनाने वाली वस्तु यदि कोई है तो वह योग ही है। अविनाशी जीवन की प्राप्ति अविनाशी विद्या से ही हो सकती है और वह योग है। भगवान् श्री कृष्ण ने इसे श्रीमद्भगवदगीता जी में अव्यय योग की संज्ञा से अभिहित किया हैं।
श्री महाप्रभुजी ने योग की गुप्त-क्रियाओं को साधकों के सन्मुख प्रकाशित किया है। वैसे योग के विषय में योग शास्त्रों में कहा गया है- “भवेत् वीर्यवती गुप्ता निवीर्या च प्रकाशिताष् अर्थात योग की क्रियाऐं गुप्त रहने पर प्रभावकारी होती है और प्रकाशित किये जाने पर प्रभावहीन हो जाती है। सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज अपने श्री मुख से बार-बार कहा करते थे कि इस समय संसार में योग की क्रियाओं का प्रचार-प्रसार उतना ही है जितना श्री महाप्रभु जी ने प्रसारित व प्रचारित किया था। योग-शास्त्रों में तो योग की क्रियाओं की अलौकिक उपलब्धियाँ बताई गयी हैं। किन्तु फिर भी मनुष्य उन उपलब्धियों को प्राप्त नहीं कर पाता है। इन गुप्त क्रियाओं को श्री महाप्रभु जी और सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज ने कुछ एक शिष्यों को कराई थी। वर्तमान में अविनाशी योग विज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु श्री महाप्रभु जी व सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज की कृपा से योगाश्रमों की स्थापना हो रही है।
श्री महाप्रभु जी के लीलावसान से कुछ दिन पूर्व सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज अपने जन्म भूमि अलुपूर गये हुये थे। श्री महाप्रभु जी का एक पत्र आया कि चिरंजीव – तुम पत्र मिलते ही हमारे पास अमृतसर आ जाओ। श्री महाप्रभु जी का पत्र पाकर सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज अमृतसर चले आए। पंडित नन्दलाल जी जोकि श्री महाप्रभुजी के एक ध्यानी बच्चे थे। उनको ध्यान में नारदमुनि ने बता दिया कि आज श्री महाप्रभु जी अपने धाम को चले गये हैं, किन्तु वह प्राणकोष अभी 20 दिन तक शरीर में रखेगें। 20 दिन बाद उसे भी ले लेंगे। पंडित नन्दलाल ने श्री महाप्रभुजी को यह अनुभव सुनाया। श्री महाप्रभुजी कहने लगे – हम तो तुम्हारे सामने बैठे है। हम कहाँ चलें गये हैं? लेकिन बात वही हुई जो नारदजी ने बताई थी। उनके शरीर छोड़ने के एक दिन पूर्व सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज उनकी चारपाई के पास बैठे थे और उन्होंने चिन्तित होकर श्री महाप्रभु जी से पूछा कि प्रभुजी! लगता है आप नेपाल को चले जायेगें इस शरीर का त्याग कर देंगे। श्री महाप्रभुजी ने प्रेमपूर्वक लाड़ लड़ाते हुए कहा कि पुत्र! ऐसा काम तो हम रोज करते हैं। घबराओं नहीं! व अगले दिन श्री महाप्रभुजी ने निर्माणकाय सिद्धि से प्राप्त अपने भौतिक शरीर को त्याग दिया। शरीर त्यागने से पूर्व उनके तीन शिष्य पास में थे जिनमें सद्गुरुदेव योगिराज श्री चंद्रमोहन जी महाराज, द्रौपदी माताजी व योगिराज मुलखराज जी महाराज थे। श्री महाप्रभुजी ने कहा-माँगो जिसको जो माँगना हो। सभी ने कृपा की याचना की। सभी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और सो जाने की आज्ञा दी। प्रातः चार बजे जब भक्त शिष्य उठे तब श्री महाप्रभु जी अपना शरीर छोड़ चुके थे। समस्त शिष्यों को यथा संभव सूचना दी गई और समस्त शिष्य एकत्र होने लगे। शिष्यों व परिवारजनों की सहमति से विशाल विमान बनवाया गया, उस पर श्री महाप्रभु जी के शरीर को विराजमान करवाकर सारे शहर में संकीर्तन करते हुये विशाल यात्रा निकाली गई और उनके भौतिक शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया। किन्तु सर्वशक्तिमान ने अपनी विद्यमानता का प्रमाण भी दिया, जिस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उन्होंने शरीर छोड़ा, उसी दिन ग्यारह बजे अपने कुटुम्बी भाई पंडित जगन्नाथ जी को मिले और बहुत देर तक वार्तालाप हुआ। श्री महाप्रभुजी ने उन्हें निर्देश दिया कि मेरे शिष्य जोकि शोक संतप्त है, को बता देना अब हम नेपाल को जा रहे है। श्री महाप्रभु जी के घर पर आकर पंडित जगन्नाथ जी ने उपस्थित समस्त शिष्यों व परिवारजनों को उपरोक्त घटना के विषय में बताते हुए कहा कि अभी-अभी तुम्हारे गुरुजी मिले थे, मुझसे कह रहे थे नेपाल जा रहा हूँ और मेरे शिष्यों को सान्त्वना दे देना। इस पर योगिराज मुल्खराज जी उन्हें श्री महाप्रभु जी के पार्थिव शरीर के पास ले गये और उनके दर्शन कराये, उनकों अपनी आँखो पर विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने अभी-अभी बगीचे में श्री महाप्रभु जी से भेंट वार्तालाप की थी। तब पंडित जगन्नाथ जी कहने लगे – भाई, हम अब तक उन्हें अपना कुटुम्बी भाई मानते रहें, वे तो वास्तव में सिद्ध योगिराज थे आज तड़के उन्होंने शरीर छोड़ दिया और हमें अभी ग्यारह बजे मिले तथा वार्तालाप की। हम भी धोखे में ही रहे, हम भी कोई आशीर्वाद वरदान नहीं ले पाये। एक वैष्णव महात्मा श्री महाप्रभु जी के चरणों में आया करते थे उनसे दीक्षा लेने की सोचा करते थे, उस दिन ही आकाशमार्ग से जाते हुए उन्हें श्री महाप्रभु जी ने मन्त्र दीक्षा दी तथा आशीर्वाद दिया। इसी प्रकार से एक भक्त नारायण दास थे जो उन दिनों खेचरी का अभ्यास कर रहे थे उन्हें भी उस दिन दर्शन देते हुये आशीर्वाद दिया और कहा-अब तुम्हारी खेचरी पूर्ण हो जायेगी। वस्तुतः वे आज भी अपने मूल योगमय शरीर से हिमालय में विराजमान हैं। जब जहाँ आवश्यकता पड़ती है भक्तों पर कृपा कर संकटों से बचाते रहते हैं तथा योग के अमर विद्या को अपने भक्तों में प्रकाशित करते रहते हैं।